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कविता

रूठ गए मेहमान

निर्मल शुक्ल


मिलते नहीं
सुनहरे पंछी
अब पोखर के पानी में।

आते थे पहले बेखटके
अब तो बस कुछ
भूले भटके
नखरीले हमजोली के संग
नहीं बीतते लटके झटके
हैं बस
रंग बिरंगे डैने
अब तो बाल कहानी में।

घर हो या फिर देश पराया
विष ने अपना
फन फैलाया
हाँफ उठा तन उड़ते-उड़ते
परवाजों से बिछड़ा साया
हवा आजकल
बिना पंख के
उतरे झील सुहानी में।

आह प्रदूषण निपट अकेले
धरती से
अंबर तक खेले
धकिया ले खुशनुमा सुबह सब
शाम शरबती छीने ले ले
तड़प रहीं
निर्दोष मछलियाँ
अब तो जहर खुरानी में।

धुआँ बजाकर ढोल, नगाड़े
मौसम के
संबंध बिगाड़े
सिकुड़े-सिकुड़े अपने पन से
रूठ गए मेहमान हमारे
रहीं सुबक कर,
केवल बेदम
लहरें, इस वीरानी में।


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